दादा जी कु रैबार मैक तें वैतें कविता कु रूप देकी आप लोगों दगड़ साझु छों कनु-
बचपन बीति गै अब
ज्वानि जोरों पर छै
सबळीक रै तु सबळी रै
अधीर न ह्वे कभि
धीरज न ख्वै
सबळीक रै तु सबळी रै
पीड़ा बिराणी भि-तु
अपड़ी माणी
मन कैकु दुखु
करी न इनि धाणी
हिलि मिलि सब्बुका दगड़ा रै
अधीर न ह्वे कभि.....
उड़ि अनंत अगास
पूरा जोर लगै
पर अपणी धरती
कखि बिसरी न-जै
तूफानों मा भी तु डग मग न ह्वै
अधीर न ह्वे कभि.....
साथ छुड़ी न कैकु
सैरी उमर निभै
बदलणी दुनियाँ मा
तु बदलि न जै
करि इनु काम लोग याद रखु त्वै
अधीर न ह्वे कभि.....
समंदर सी मन रखी
गंगा सी जीवन
जु सब कुछ समिटीक
फिर भी छ पावन
सूरज सी जगमग जमाना तें कै
अधीर न ह्वे कभि.....
आस न करी कैकि
कैका सारा न रै
आस जोंकी त्वै सी
ओं निरास न कै
उदास मन तें तु आस बांधी दै
अधीर न ह्वे कभि.....
प्रभात पहाड़ी (अजाण ) सर्वाधिकार सुरक्षित