रैबार

Tuesday, 16 December 2014

सबळीक रै तु सबळी रै samblik rai tu sanbli














दादा जी कु रैबार मैक तें वैतें कविता कु रूप देकी आप लोगों दगड़ साझु छों कनु-
बचपन बीति गै अब
ज्वानि जोरों पर छै
सबळीक रै तु सबळी रै
अधीर न ह्वे कभि
धीरज न ख्वै
सबळीक रै तु सबळी रै

पीड़ा बिराणी भि-तु
अपड़ी माणी
मन कैकु दुखु
करी न इनि धाणी
हिलि मिलि सब्बुका दगड़ा रै
अधीर न ह्वे कभि.....

उड़ि अनंत अगास
पूरा जोर लगै
पर अपणी धरती
कखि बिसरी न-जै
तूफानों मा भी तु डग मग न ह्वै
अधीर न ह्वे कभि.....

साथ छुड़ी न कैकु
सैरी उमर निभै
बदलणी दुनियाँ मा
तु बदलि न जै
करि इनु काम लोग याद रखु  त्वै
अधीर न ह्वे कभि.....

समंदर सी मन रखी
गंगा सी जीवन
जु सब कुछ समिटीक
फिर भी छ पावन
सूरज सी जगमग जमाना तें कै
अधीर न ह्वे कभि.....

आस न करी कैकि
कैका सारा न रै
आस जोंकी त्वै सी
ओं निरास न कै
उदास मन तें तु आस बांधी दै
अधीर न ह्वे कभि.....

                       प्रभात पहाड़ी  (अजाण ) सर्वाधिकार सुरक्षित